श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 10: जड़ भरत तथा महाराज रहूगण की वार्ता  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  5.10.17 
 
 
नाहं विशङ्के सुरराजवज्रा-
न्न त्र्यक्षशूलान्न यमस्य दण्डात् ।
नाग्‍न्‍यर्कसोमानिलवित्तपास्त्रा-
च्छङ्के भृशं ब्रह्मकुलावमानात् ॥ १७ ॥
 
अनुवाद
 
  महानुभाव, मुझे न तो इंद्र के वज्र से डर है, न ही नागदंश से, न ही भगवान शिव के त्रिशूल से। मुझे न तो मौत के अधीक्षक यमराज के दंड की कोई परवाह है, न ही मैं आग, चमकता सूरज, चंद्रमा, हवा या कुबेर के हथियारों से डरता हूँ। परन्तु, मैं ब्राह्मण के अपमान से डरता हूँ। मुझे इससे बहुत डर लगता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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