श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 10: जड़ भरत तथा महाराज रहूगण की वार्ता  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  5.10.11 
 
 
जीवन्मृतत्वं नियमेन राजन्
आद्यन्तवद्यद्विकृतस्य द‍ृष्टम् ।
स्वस्वाम्यभावो ध्रुव ईड्य यत्र
तर्ह्युच्यतेऽसौ विधिकृत्ययोग: ॥ ११ ॥
 
अनुवाद
 
  हे राजन, आपने जीवित होने पर भी मुझे व्यर्थ ही मरा हुआ बताया है। इस भौतिक संबंध में मैं इतना ही कहूँगा कि ऐसा हर जगह है, क्योंकि प्रत्येक भौतिक वस्तु का अपना आरंभ और अंत होता है। आपका यह सोचना कि "मैं राजा और स्वामी हूँ" और इस तरह आप द्वारा मुझे आदेश देना भी उचित नहीं है, क्योंकि ये पद अस्थायी हैं। आज आप राजा हैं और मैं आपका सेवक हूँ, लेकिन कल स्थिति बदल सकती है और आप मेरे सेवक हो सकते हैं, और मैं आपका स्वामी। ये नियति द्वारा निर्मित अस्थायी परिस्थितियाँ हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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