श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 1: महाराज प्रियव्रत का चरित्र  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  5.1.41 
 
 
भौमं दिव्यं मानुषं च महित्वं कर्मयोगजम् ।
यश्चक्रे निरयौपम्यं पुरुषानुजनप्रिय: ॥ ४१ ॥
 
अनुवाद
 
  नारद मुनि के अनन्य भक्त और समर्पित अनुयायी, महाराज प्रियव्रत ने किसी भी परिस्थिति में अपने सकाम कर्मों और योगबल से प्राप्त सभी ऐश्वर्य को नरक के समान माना, चाहे वह स्वर्गलोक हो, अधोलोक हो या फिर मानव समाज।
 
 
इस प्रकार श्रीमद् भागवतम के स्कन्ध पांच के अंतर्गत पहला अध्याय समाप्त होता है ।
 
 
 
  Connect Form
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
  © copyright 2024 vedamrit. All Rights Reserved.