श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 1: महाराज प्रियव्रत का चरित्र  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  5.1.4 
 
 
संशयोऽयं महान् ब्रह्मन् दारागारसुतादिषु ।
सक्तस्य यत्सिद्धिरभूत्कृष्णे च मतिरच्युता ॥ ४ ॥
 
अनुवाद
 
  राजा ने आगे पूछा, हे विप्रवर, मेरा सबसे बड़ा सन्देह यही है कि राजा प्रियव्रत जैसे व्यक्ति के लिए, जो अपनी पत्नी, सन्तान तथा घर के प्रति इतने आसक्त थे, कृष्ण-भक्ति में सर्वोच्च अविचल सिद्धि प्राप्त कर पाना कैसे सम्भव हो सका?
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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