श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 1: महाराज प्रियव्रत का चरित्र  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  5.1.35 
 
 
नैवंविध: पुरुषकार उरुक्रमस्यपुंसां तदङ्‌घ्रिरजसा जितषड्‌गुणानाम् ।
चित्रं विदूरविगत: सकृदाददीतयन्नामधेयमधुना स जहाति बन्धम् ॥ ३५ ॥
 
अनुवाद
 
  हे राजन, जिस भक्त ने भगवान के चरण कमलों की धूलि की शरण ली है, वह छह विकारों अर्थात् भूख, प्यास, शोक, मोह, जरा और मृत्यु के प्रभावों को लाँघ सकता है और मन और पाँचों इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर सकता है। लेकिन भगवान के शुद्ध भक्त के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि चारों वर्णों से बाहर का व्यक्ति, दूसरे शब्दों में, एक अछूत व्यक्ति भी भगवान के पवित्र नाम का एक बार उच्चारण करके भौतिक अस्तित्व के बंधन से तुरंत मुक्त हो जाता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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