श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 1: महाराज प्रियव्रत का चरित्र  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  5.1.30 
 
 
यावदवभासयति सुरगिरिमनुपरिक्रामन् भगवानादित्यो वसुधातलमर्धेनैव प्रतपत्यर्धेनावच्छादयति तदा हि भगवदुपासनोपचितातिपुरुषप्रभावस्तदनभिनन्दन् समजवेन रथेन ज्योतिर्मयेन रजनीमपि दिनं करिष्यामीति सप्तकृत्वस्तरणिमनुपर्यक्रामद् द्वितीय इव पतङ्ग: ॥ ३० ॥
 
अनुवाद
 
  इस प्रकार राज्य का उत्तम प्रकार से संचालन करते हुए राजा प्रियव्रत एक बार महाबलशाली सूर्यदेव की परिक्रमा से असंतुष्ट हो गए। सूर्यदेव अपने रथ पर बैठकर सुमेरु पर्वत की परिक्रमा करते हुए समस्त लोकों को प्रकाशित करते हैं, किंतु जब सूर्य उत्तर दिशा में रहता है, तब दक्षिण भाग को कम प्रकाश मिलता है और जब सूर्य दक्षिण दिशा में रहता है, तब उत्तर भाग को कम प्रकाश मिलता है। राजा प्रियव्रत को यह स्थिति पसंद नहीं आई इसलिए उन्होंने संकल्प किया कि ब्रह्मांड के उस भाग में जहाँ रात्रि है, वहाँ वे दिन कर देंगे। उन्होंने एक प्रकाशमान रथ पर चढ़कर सूर्यदेव की कक्षा का अनुसरण करके अपनी इच्छा पूर्ण की। वे ऐसे अद्भुत कार्य इसलिए कर पाए, क्योंकि उन्होंने भगवान् की उपासना के द्वारा शक्ति अर्जित की थी।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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