श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 1: महाराज प्रियव्रत का चरित्र  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  5.1.27 
 
 
तस्मिन्नु ह वा उपशमशीला: परमर्षय: सकलजीवनिकायावासस्य भगवतो वासुदेवस्य भीतानां शरणभूतस्य श्रीमच्चरणारविन्दाविरतस्मरणाविगलितपरमभक्तियोगानुभावेन परिभावितान्तर्हृदयाधिगते भगवति सर्वेषां भूतानामात्मभूते प्रत्यगात्मन्येवा- त्मनस्तादात्म्यमविशेषेण समीयु: ॥ २७ ॥
 
अनुवाद
 
  अपने जीवन की शुरुआत से ही संन्यास आश्रम में रहकर इन तीनों ने अपनी इंद्रियों पर पूरी तरह से नियंत्रण कर लिया और महान संत बन गए। उन्होंने अपने मन को हमेशा भगवान के चरणकमलों में केंद्रित रखा, जो सभी जीवों के आश्रय हैं और वासुदेव के नाम से जाने जाते हैं। जो लोग भौतिक अस्तित्व से डरते हैं, उनके लिए भगवान वासुदेव ही एकमात्र शरण हैं। भगवान के चरणकमलों में निरंतर ध्यान लगाने के कारण महाराज प्रियव्रत के ये तीनों पुत्र शुद्ध भक्ति से सिद्ध बन गए। अपनी भक्ति के बल से वे परमात्मा के रूप में प्रत्येक के हृदय में निवास करने वाले भगवान् का प्रत्यक्ष दर्शन कर सके और अनुभव कर सके कि उनमें और भगवान में, गुण के अनुसार, कोई अंतर नहीं है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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