श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 7: दक्ष द्वारा यज्ञ सम्पन्न करना  »  श्लोक 48
 
 
श्लोक  4.7.48 
 
 
मैत्रेय उवाच
इति दक्ष: कविर्यज्ञं भद्र रुद्राभिमर्शितम् ।
कीर्त्यमाने हृषीकेशे सन्निन्ये यज्ञभावने ॥ ४८ ॥
 
अनुवाद
 
  श्री मैत्रेय ने कहा: वहाँ उपस्थित सभी के द्वारा विष्णु जी की स्तुति किए जाने पर दक्ष ने अपने अंतर मन को निर्मल करके पुनः उसी यज्ञ को आरंभ करने की व्यवस्था की, जिसे शिव जी के अनुयायियों ने नष्ट कर दिया था।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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