सुपर्णस्कन्धमारूढो मेरुशृङ्गमिवाम्बुद: ।
पीतवासा मणिग्रीव: कुर्वन्वितिमिरा दिश: ॥ ५ ॥
अनुवाद
गरुड़ के कंधों पर विराजमान भगवान् मेरु पर्वत की चोटी पर विश्राम कर रहे बादल समान लग रहे थे। भगवान् का दिव्य शरीर आकर्षक पीताम्बर से ढका था और उनकी गर्दन कौस्तुभ मणि से सजी थी। भगवान् के शरीर से निकलते तेज से ब्रह्माण्ड का सारा अंधेरा दूर हो रहा था।