श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 30: प्रचेताओं के कार्यकलाप  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  4.30.5 
 
 
सुपर्णस्कन्धमारूढो मेरुश‍ृङ्गमिवाम्बुद: ।
पीतवासा मणिग्रीव: कुर्वन्वितिमिरा दिश: ॥ ५ ॥
 
अनुवाद
 
  गरुड़ के कंधों पर विराजमान भगवान् मेरु पर्वत की चोटी पर विश्राम कर रहे बादल समान लग रहे थे। भगवान् का दिव्य शरीर आकर्षक पीताम्बर से ढका था और उनकी गर्दन कौस्तुभ मणि से सजी थी। भगवान् के शरीर से निकलते तेज से ब्रह्माण्ड का सारा अंधेरा दूर हो रहा था।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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