श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 30: प्रचेताओं के कार्यकलाप  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  4.30.43 
 
 
मैत्रेय उवाच
इति प्रचेतोभिरभिष्टुतो हरि:
प्रीतस्तथेत्याह शरण्यवत्सल: ।
अनिच्छतां यानमतृप्तचक्षुषां
ययौ स्वधामानपवर्गवीर्य: ॥ ४३ ॥
 
अनुवाद
 
  महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, इस तरह प्रचेताओं ने उनको सम्बोधित और पूजित किया और शरणागतों के रक्षक भगवान ने कहा, “तुमने जो प्रार्थना की है वो पूरी होंगी।” यह कहकर कभी न पराजित होने वाले भगवान ने विदा ली। प्रचेता लोग उनसे अलग नहीं होना चाहते थे क्योंकि वे उन्हें भरपूर देख नहीं पाए थे।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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