श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 30: प्रचेताओं के कार्यकलाप  »  श्लोक 39-40
 
 
श्लोक  4.30.39-40 
 
 
यन्न: स्वधीतं गुरव: प्रसादिता
विप्राश्च वृद्धाश्च सदानुवृत्त्या ।
आर्या नता: सुहृदो भ्रातरश्च
सर्वाणि भूतान्यनसूययैव ॥ ३९ ॥
यन्न: सुतप्तं तप एतदीश
निरन्धसां कालमदभ्रमप्सु ।
सर्वं तदेतत्पुरुषस्य भूम्नो
वृणीमहे ते परितोषणाय ॥ ४० ॥
 
अनुवाद
 
  हे भगवन्, हमने वेदों का अध्ययन किया है, आध्यात्मिक गुरु ग्रहण किए हैं और ब्राह्मणों, भक्तों और अध्यात्मिक रूप से अत्यधिक उन्नत वरिष्ठ व्यक्तियों के चरणों में नमन किया है। हमने किसी भी भाई, मित्र या अन्य किसी से ईर्ष्या नहीं की है। हमने जल के भीतर कठोर तपस्या भी की है और लंबे समय तक भोजन नहीं ग्रहण किया है। हमारी ये सारी आध्यात्मिक उपलब्धियाँ केवल आपकी कृपा के लिए अर्पित हैं। हम आपसे केवल यही वर माँगते हैं, अन्य कुछ भी नहीं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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