श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 30: प्रचेताओं के कार्यकलाप  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  4.30.33 
 
 
यावत्ते मायया स्पृष्टा भ्रमाम इह कर्मभि: ।
तावद्भवत्प्रसङ्गानां सङ्ग: स्यान्नो भवे भवे ॥ ३३ ॥
 
अनुवाद
 
  हे स्वामी, जब तक हम सांसारिक कलंक से दूषित इस नश्वर संसार में रहकर विवश हैं और एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक ग्रह से दूसरे ग्रह में भटक रहे हैं, हमारी प्रार्थना है कि हम उन सत्पुरुषों की संगति में पधार सकें जो आपके लीलाओं का चर्चा करते रहते हैं। हम जन्म-जन्म, शरीर-शरीर एवं ग्रह-ग्रह में आपके इस वरदान की प्रार्थना करते रहेंगे।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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