श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 30: प्रचेताओं के कार्यकलाप  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  4.30.32 
 
 
पारिजातेऽञ्जसा लब्धे सारङ्गोऽन्यन्न सेवते ।
त्वदङ्‌घ्रिमूलमासाद्य साक्षात्किं किं वृणीमहि ॥ ३२ ॥
 
अनुवाद
 
  हे प्रभु, जब भ्रमर एक बार दिव्य पारिजात के पास पहुँच जाता है तो उसे छोड़कर कहीं और नहीं जाता क्योंकि अब उसे कहीं और जाने की जरूरत नहीं रह जाती। इसी तरह से जब हमने आपके चरणों की शरण ग्रहण कर ली तो हमें और किसी वर की आवश्यकता नहीं है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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