श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 30: प्रचेताओं के कार्यकलाप  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  4.30.31 
 
 
वरं वृणीमहेऽथापि नाथ त्वत्परत: परात् ।
न ह्यन्तस्त्वद्विभूतीनां सोऽनन्त इति गीयसे ॥ ३१ ॥
 
अनुवाद
 
  इसलिए हे स्वामी, हम आपसे वर देने के लिए प्रार्थना करेंगे, क्योंकि आप सारी दिव्य प्रकृति से परे हैं, आपका कोई अंत नहीं है और आपके पास अनंत ऐश्वर्य हैं। इसलिए आपको अनंत नाम से जाना जाता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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