श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 30: प्रचेताओं के कार्यकलाप  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  4.30.27 
 
 
रूपं भगवता त्वेतदशेषक्लेशसङ्‌क्षयम् ।
आविष्कृतं न: क्लिष्टानां किमन्यदनुकम्पितम् ॥ २७ ॥
 
अनुवाद
 
  हे प्रभु, हम जीव सदैव शरीर में होने वाली भ्रांतियों से बंधे रहते हैं, जिससे हम अज्ञान से घिरे रहते हैं। फलतः हमें भौतिक जगत में हमेशा कष्ट ही सुखद लगते हैं। हमारे उद्धार के लिए आपने यह अद्भुत अवतार लिया है। यह उन असीम कृपा की निशानी है जो आप हम पर करते हैं, जो इन क्लेशों में पड़े हुए हैं। ऐसे में आपके उन भक्तों की हम क्या बात करें, जिन पर आप हमेशा कृपा करते हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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