श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 30: प्रचेताओं के कार्यकलाप  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  4.30.23 
 
 
शुद्धाय शान्ताय नम: स्वनिष्ठया
मनस्यपार्थं विलसद्‌द्वयाय ।
नमो जगत्स्थानलयोदयेषु
गृहीतमायागुणविग्रहाय ॥ २३ ॥
 
अनुवाद
 
  हे प्रभु, हम आपकी आराधना करने की प्रार्थना करते हैं। जब मन आप में स्थित रहता है, तो यह जगत् द्वैतपूर्ण होकर भी भौतिक सुख के स्थान के रूप में व्यर्थ प्रतीत होता है। आपका दिव्य रूप दिव्य आनंद से परिपूर्ण है। इसलिए, हम आपका सम्मान करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव के रूप में आपका प्रकट होना इस दृश्यमान जगत की उत्पत्ति, पालन और विनाश के उद्देश्य से है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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