श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 30: प्रचेताओं के कार्यकलाप  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  4.30.20 
 
 
नव्यवद्धृदये यज्ज्ञो ब्रह्मैतद्ब्रह्मवादिभि: ।
न मुह्यन्ति न शोचन्ति न हृष्यन्ति यतो गता: ॥ २० ॥
 
अनुवाद
 
  भक्ति कार्यों में निरंतर संलग्न रहने से भक्त स्वयं को हर पल ताज़ा एवं अपने कार्यों में सदैव नवीन पाते हैं। भक्त के हृदय में निवास करने वाले सर्वज्ञ परमात्मा प्रत्येक वस्तु को और अधिक नया बनाते रहते हैं। परम सत्य के समर्थक इस स्थिति को ब्रह्मभूत कहते हैं। ब्रह्मभूत अथवा मुक्त अवस्था में मनुष्य कभी मोह में नहीं फँसता, न पछतावा करता है और न ही अनावश्यक रूप से हर्षित होता है। यह सब ब्रह्मभूत स्थिति के कारण ही संभव है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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