गृहेष्वाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मणाम् ।
मद्वार्तायातयामानां न बन्धाय गृहा मता: ॥ १९ ॥
अनुवाद
जो भक्ति के शुभ कार्यों में तल्लीन रहते हैं, वे अच्छी तरह से समझते हैं कि सुख-सुविधाओं के पूर्ण आस्वादक भगवान ही हैं। इसलिए जब भी ऐसा व्यक्ति कोई काम करता है, तो उसका फल भगवान को अर्पित कर देता है और हमेशा भगवान के गुणों के गान में ही जीवन बिताते हैं। ऐसा व्यक्ति गृहस्थ होते हुए भी अपने कार्यों के फल से प्रभावित नहीं होता।