श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 29: नारद तथा राजा प्राचीनबर्हि के मध्य वार्तालाप  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  4.29.11 
 
 
नलिनी नालिनी नासे गन्ध: सौरभ उच्यते ।
घ्राणोऽवधूतो मुख्यास्यं विपणो वाग्रसविद्रस: ॥ ११ ॥
 
अनुवाद
 
  नलिनी एवं नालिनी नामक दो द्वार दो नासाछिद्र हैं और सुगंध को ही सौरभ नामक नगरी कहा है। अवधूत नामक साथी घ्राणेन्द्रिय है। मुख्या नामक द्वार मुख है और विपण बोलने की शक्ति है। रसज्ञ ही स्वाद की इन्द्रिय है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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