श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 28: अगले जन्म में पुरञ्जन को स्त्री-योनि की प्राप्ति  »  श्लोक 60
 
 
श्लोक  4.28.60 
 
 
न त्वं विदर्भदुहिता नायं वीर: सुहृत्तव ।
न पतिस्त्वं पुरञ्जन्या रुद्धो नवमुखे यया ॥ ६० ॥
 
अनुवाद
 
  वास्तव में, तुम विदर्भ की पुत्री नहीं हो और न यह पुरुष, मलयध्वज, तुम्हारा शुभचिंतक पति है। और तुम पुराञ्जनी के वास्तविक पति भी नहीं थे। तुम तो बस इस नौ द्वारों वाले शरीर में कैद थे।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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