श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 25: राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन  »  श्लोक 62
 
 
श्लोक  4.25.62 
 
 
विप्रलब्धो महिष्यैवं सर्वप्रकृतिवञ्चित: ।
नेच्छन्ननुकरोत्यज्ञ: क्लैब्यात्क्रीडामृगो यथा ॥ ६२ ॥
 
अनुवाद
 
  इस तरह राजा पुरञ्जन अपनी पत्नी की खूबसूरती में फंस गया था और यों धोखा खा रहा था। दरअसल, वह भौतिक दुनिया में अपने पूरे अस्तित्व तक धोखा खा रहा था। उस बेचारे मूर्ख राजा की इच्छा के विरुद्ध भी, वह अपनी पत्नी के नियंत्रण में था, ठीक वैसे ही जैसे कोई पालतू जानवर अपने मालिक के इशारों पर नाचता-गाता रहता है।
 
 
इस प्रकार श्रीमद् भागवतम के स्कन्ध चार के अंतर्गत पच्चीसवाँ अध्याय समाप्त होता है ।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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