श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 25: राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  4.25.6 
 
 
गृहेषु कूटधर्मेषु पुत्रदारधनार्थधी: ।
न परं विन्दते मूढो भ्राम्यन् संसारवर्त्मसु ॥ ६ ॥
 
अनुवाद
 
  तथाकथित सुखमय जीवन जीने में रूचि रखने वाले व्यक्ति यानी सन्तान और पत्नी के चक्कर में गृहस्थ होकर धन संग्रह करने में लगे रहने वाले लोग जीवन का एकमात्र चरम लक्ष्य यही मानते हैं। इस संसार में ही ऐसे लोग जीवन का असली लक्ष्य जाने बिना ही तरह-तरह के शरीरों में भटकते रहते हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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