श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 25: राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन  »  श्लोक 55
 
 
श्लोक  4.25.55 
 
 
स यर्ह्यन्त:पुरगतो विषूचीनसमन्वित: ।
मोहं प्रसादं हर्षं वा याति जायात्मजोद्भवम् ॥ ५५ ॥
 
अनुवाद
 
  कभी-कभी वह अपने मुख्य दासों में से एक (मन), जिसका नाम विषूचीन था, के साथ अपने अंत:पुर में जाया करता था। उस समय उसकी पत्नी और बच्चों से उसे मोह, संतोष और खुशी का अनुभव होता था।
 
 
 
  Connect Form
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
  © copyright 2024 vedamrit. All Rights Reserved.