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श्रीमद् भागवतम
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स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति
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अध्याय 25: राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन
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श्लोक 53
श्लोक
4.25.53
निऋर्तिर्नाम पश्चाद् द्वास्तया याति पुरञ्जन: ।
वैशसं नाम विषयं लुब्धकेन समन्वित: ॥ ५३ ॥
अनुवाद
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पश्चिमी दिशा में एक और द्वार था जिसे निर्ऋति कहा जाता था। पुरञ्जन इस द्वार से होते हुए अपने मित्र लुब्धक के साथ वैशस नामक स्थान पर जाया करता था।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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