श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 25: राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  4.25.4 
 
 
श्रेयस्त्वं कतमद्राजन् कर्मणात्मन ईहसे ।
दु:खहानि: सुखावाप्ति: श्रेयस्तन्नेह चेष्यते ॥ ४ ॥
 
अनुवाद
 
  नारद मुनि ने राजा प्राचीनबर्हिषत् से पूछा: हे राजन्, तुम भोग-विलास की इन इच्छाओं को पूरा करने के लिए ये सकाम कर्म कर रहे हो? जीवन का मुख्य उद्देश्य तो दुखों से छुटकारा पाना और सुख को प्राप्त करना है, लेकिन ये दोनों चीजें सकाम कर्मों से प्राप्त नहीं की जा सकतीं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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