श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 25: राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  4.25.31 
 
 
त्वदाननं सुभ्रु सुतारलोचनं
व्यालम्बिनीलालकवृन्दसंवृतम् ।
उन्नीय मे दर्शय वल्गुवाचकं
यद्‌व्रीडया नाभिमुखं शुचिस्मिते ॥ ३१ ॥
 
अनुवाद
 
  हे सुन्दरी, सुन्दर भौंहों व आँखों से युक्त तुम्हारा मुख अत्यंत मनोहारी है, जिस पर नीले केश बिखरे हुए हैं। साथ ही, तुम्हारे मुँह से मधुर ध्वनि निकल रही है। फिर भी, तुम लज्जा से इस कदर घिरी हुई हो कि तुम मुझे देख ही नहीं पा रही हो। अतः, हे सुन्दरी, मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि तुम मुस्कुराओ और कृपा करके अपना सिर उठाकर मुझे देखो तो।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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