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स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति
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अध्याय 24: शिवजी द्वारा की गई स्तुति का गान
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श्लोक 7
श्लोक
4.24.7
तत्रापि हंसं पुरुषं परमात्मानमात्मदृक् ।
यजंस्तल्लोकतामाप कुशलेन समाधिना ॥ ७ ॥
अनुवाद
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यद्यपि महाराज अन्तर्धान यज्ञ कर्मों में व्यस्त थे, किन्तु अपना स्वरूप जानते हुए भक्तों के सभी भयों को दूर करने वाले भगवान् की पूजा भी करते रहे। इस प्रकार वे भगवान् की उपासना करते हुए समाधि में लीन रहे और सहजतापूर्वक भगवान् के लोक को प्राप्त हुए।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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