श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 24: शिवजी द्वारा की गई स्तुति का गान  »  श्लोक 64
 
 
श्लोक  4.24.64 
 
 
सृष्टं स्वशक्त्येदमनुप्रविष्ट-
श्चचतुर्विधं पुरमात्मांशकेन ।
अथो विदुस्तं पुरुषं सन्तमन्त-
र्भुङ्क्ते हृषीकैर्मधु सारघं य: ॥ ६४ ॥
 
अनुवाद
 
  हे मेरे प्रभु, आप अपनी शक्तियों के द्वारा सृष्टि कर लेने के बाद, सृष्टि में चार रूपों में प्रवेश करते हैं। आप जीवों के हृदय में निवास करते हैं और उन्हें तथा उनके इंद्रिय-भोगों को जानते हैं। इस भौतिक संसार का तथाकथित सुख ठीक वैसा ही है जैसा कि छत्ते में जमा होते ही मधुमक्खियों द्वारा उसका आनंद लिया जाता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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