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स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति
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अध्याय 24: शिवजी द्वारा की गई स्तुति का गान
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श्लोक 56
श्लोक
4.24.56
यत्र निर्विष्टमरणं कृतान्तो नाभिमन्यते ।
विश्वं विध्वंसयन् वीर्यशौर्यविस्फूर्जितभ्रुवा ॥ ५६ ॥
अनुवाद
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उनकी भृकुटि के तनकर विस्तार पाते ही दुर्जेय काल, जो पलभर में सारे ब्रह्माण्ड को खाक में मिला देता है, आपके श्रीचरण कमलों की शरण लिए भक्त के आस-पास भी नहीं फटकता।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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