श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 24: शिवजी द्वारा की गई स्तुति का गान  »  श्लोक 44
 
 
श्लोक  4.24.44 
 
 
दर्शनं नो दिद‍ृक्षूणां देहि भागवतार्चितम् ।
रूपं प्रियतमं स्वानां सर्वेन्द्रियगुणाञ्जनम् ॥ ४४ ॥
 
अनुवाद
 
  हे प्रभु, मैं आपको उस रूप में देखना चाहता हूँ जिसमें आपके परम प्रिय भक्त आपकी आराधना करते हैं। आपके अन्य भी अनेक रूप हैं, किंतु मैं तो उस रूप का दर्शन करना चाहता हूँ जिसे भक्तगण विशेष रूप से पसंद करते हैं। आप मुझ पर दया करें और मुझे वह स्वरूप दिखाएँ, क्योंकि जिस रूप की भक्तगण पूजा करते हैं वही स्वरूप इन्द्रियों की इच्छाओं को पूरी तरह से संतुष्ट कर सकता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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