श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 24: शिवजी द्वारा की गई स्तुति का गान  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  4.24.11 
 
 
सामुद्रीं देवदेवोक्तामुपयेमे शतद्रुतिम् ।
यां वीक्ष्य चारुसर्वाङ्गीं किशोरीं सुष्ठ्वलङ्कृताम् ।
परिक्रमन्तीमुद्वाहे चकमेऽग्नि: शुकीमिव ॥ ११ ॥
 
अनुवाद
 
  महाराज बर्हिषत् (अब से प्राचीनबर्हि नाम से विख्यात) को परमदेव ब्रह्मा जी ने समुद्र की कन्या शतद्रुति से विवाह करने का आदेश दिया था। उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग अत्यंत सुंदर थे और वह बहुत कम उम्र की थी। वह उचित परिधानों से सजाई-धजी थी। जब वह विवाह मंडप में आकर परिक्रमा करने लगी तो अग्निदेव उसपर इतने मोहित हो गए कि उन्होंने उसे पत्नी बनाकर उसके साथ सहवास करना चाहा, ठीक उसी तरह जैसे पहले भी उन्होंने शुकी के साथ करना चाहा था।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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