श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 21: महाराज पृथु द्वारा उपदेश  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  4.21.41 
 
 
अश्नात्यनन्त: खलु तत्त्वकोविदै:
श्रद्धाहुतं यन्मुख इज्यनामभि: ।
न वै तथा चेतनया बहिष्कृते
हुताशने पारमहंस्यपर्यगु: ॥ ४१ ॥
 
अनुवाद
 
  यद्यपि ईश्वर अनन्त, विभिन्न देवताओं के नामों से अग्नि में अर्पित हवन को खाते हैं, परन्तु वे अग्नि के द्वारा खाने में उतने रूचि नहीं रखते जितने कि विद्वानों और भक्तों के मुख से भेंट को स्वीकार करते हैं, क्योंकि तब उन्हें भक्तों का साथ नहीं छोड़ना पड़ता।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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