श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 2: दक्ष द्वारा शिवजी को शाप  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  4.2.22 
 
 
गृहेषु कूटधर्मेषु सक्तो ग्राम्यसुखेच्छया ।
कर्मतन्त्रं वितनुते वेदवादविपन्नधी: ॥ २२ ॥
 
अनुवाद
 
  भौतिक सुखों के प्रति आसक्त तथा वेदों की सतही व्याख्याओं से प्रभावित कपटपूर्ण धार्मिक गृहस्थ जीवन व्यक्ति की समस्त बुद्धि को हर लेता है और उसे निःस्वार्थ कर्म से दूर ले जाकर पूरी तरह से सकाम कर्म में लिप्त कर देता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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