श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 2: दक्ष द्वारा शिवजी को शाप  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  4.2.12 
 
 
गृहीत्वा मृगशावाक्ष्या: पाणिं मर्कटलोचन: ।
प्रत्युत्थानाभिवादार्हे वाचाप्यकृत नोचितम् ॥ १२ ॥
 
अनुवाद
 
  इसकी आँखें बन्दर जैसी हैं, फिर भी इसने हिरणी की तरह सुन्दर आँखों वाली मेरी बेटी से विवाह किया है। फिर भी इसने उठकर न तो मेरा स्वागत किया और न ही मीठी वाणी से मेरा आदर-सत्कार करना उचित समझा।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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