श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 19: राजा पृथु के एक सौ अश्वमेध यज्ञ  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  4.19.34 
 
 
मास्मिन्महाराज कृथा: स्म चिन्तांनिशामयास्मद्वच आद‍ृतात्मा ।
यद्ध्यायतो दैवहतं नु कर्तुंमनोऽतिरुष्टं विशते तमोऽन्धम् ॥ ३४ ॥
 
अनुवाद
 
  हे राजन्! दैवीय हस्तक्षेप के कारण आपका यज्ञ विधिवत संपन्न न हो पाने पर आप क्षुब्ध और चिंतित न हों। कृपया मेरे वचनों को आदरपूर्वक सुनें। यह सदैव याद रखना चाहिए कि जो कुछ भी प्रारब्ध से घटता है, उसके लिए हमें अत्यधिक दुखी नहीं होना चाहिए। ऐसी पराजयों को ठीक करने का जितना अधिक प्रयास किया जाता है, उतना ही हम भौतिकवादी विचारों के गहरे अंधेरे में प्रवेश करते हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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