श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 19: राजा पृथु के एक सौ अश्वमेध यज्ञ  »  श्लोक 24-25
 
 
श्लोक  4.19.24-25 
 
 
एवमिन्द्रे हरत्यश्वं वैन्ययज्ञजिघांसया ।
तद्गृहीतविसृष्टेषु पाखण्डेषु मतिर्नृणाम् ॥ २४ ॥
धर्म इत्युपधर्मेषु नग्नरक्तपटादिषु ।
प्रायेण सज्जते भ्रान्त्या पेशलेषु च वाग्मिषु ॥ २५ ॥
 
अनुवाद
 
  इस प्रकार राजा पृथु के यज्ञ से घोड़ा चुराने के लिए राजा इन्द्र ने अनेक प्रकार के संन्यास के रूप धारण किये। कुछ संन्यासी बिना कपड़ों के रहते हैं और कभी-कभी वे लाल रंग के वस्त्र पहनकर कापालिक नाम से जाने जाते हैं। ये उनके पापकर्मों के प्रतीक मात्र हैं। ऐसे दिखावटी संन्यासियों को पापी लोग बहुत पसंद करते हैं, क्योंकि ये नास्तिक होते हैं और अपने को सही साबित करने के लिए तर्क बहुत अच्छी तरह दे सकते हैं। लेकिन हमें पता होना चाहिए कि ऐसे लोग ऊपर से धर्म के समर्थक प्रतीत होते हैं, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं होता है। दुर्भाग्य से मोहग्रस्त लोग इन्हें धार्मिक मानकर इनकी ओर आकर्षित हो जाते हैं और अपना जीवन बरबाद कर लेते हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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