ऋषिगण विचार करने लगे कि यद्यपि ब्राह्मण शांत और निष्पक्ष होता है, क्योंकि वह सभी के प्रति समान रहता है, फिर भी उसका कर्तव्य है कि वह दीनों की उपेक्षा न करे। ऐसी उपेक्षा करने से उसकी आत्मिक शक्ति उसी प्रकार कम हो जाती है, जैसे कि फूटे बर्तन से पानी रिस जाता है।