श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  4.12.17 
 
 
तस्यां विशुद्धकरण: शिववार्विगाह्य
बद्ध्वासनं जितमरुन्मनसाहृताक्ष: ।
स्थूले दधार भगवत्प्रतिरूप एतद्
ध्यायंस्तदव्यवहितो व्यसृजत्समाधौ ॥ १७ ॥
 
अनुवाद
 
  बदरिकाश्रम में ध्रुव महाराज की इन्द्रियाँ पूर्णत: शुद्ध हो गईं क्योंकि वे नियमित रूप से स्वच्छ जल में स्नान करते थे। ध्यान लगाने के लिए उन्होंने उचित मुद्रा में बैठकर योगक्रिया से अपनी श्वास और प्राणवायु पर नियंत्रण किया। इस प्रकार, उन्होंने अपनी इन्द्रियों को पूरी तरह से संयमित कर लिया। तत्पश्चात्, उन्होंने अपने मन को भगवान् के अर्चाविग्रह रूप में एकाग्र किया, जो स्वयं भगवान् की पूर्ण प्रतिकृति है और इस प्रकार उस पर ध्यान केंद्रित करके वे गहन समाधि में प्रवेश कर गए।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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