आत्मस्त्र्यपत्यसुहृदो बलमृद्धकोश-
मन्त:पुरं परिविहारभुवश्च रम्या: ।
भूमण्डलं जलधिमेखलमाकलय्य
कालोपसृष्टमिति स प्रययौ विशालाम् ॥ १६ ॥
अनुवाद
इस प्रकार ध्रुव महाराज ने अंत में सारी पृथ्वी पर फैले और महासागरों से घिरे अपने राज्य को त्याग दिया। उन्होंने अपने शरीर, अपनी पत्नियों, अपनी संतानों, अपने मित्रों, अपनी सेना, अपने समृद्ध खजाने, अपने आरामदायक महलों और अपने कई मनोरंजक आनंद-स्थलों को माया की रचनाएँ मान लिया। इस प्रकार समय बीतने के साथ वे हिमालय पर्वत पर स्थित बदरिकाश्रम के जंगल में चले गए।