श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  4.11.3 
 
 
तस्यार्षास्त्रं धनुषि प्रयुञ्जत:
सुवर्णपुङ्खा: कलहंसवासस: ।
विनि:सृता आविविशुर्द्विषद्बलं
यथा वनं भीमरवा: शिखण्डिन: ॥ ३ ॥
 
अनुवाद
 
  ध्रुव महाराज ने जैसे ही अपने धनुष पर नारायण ऋषि द्वारा निर्मित अस्त्र को चढ़ाया, उससे सुनहरे फलों तथा हंस के पंखों से सुसज्जित बाण निकलने लगे। बाण शत्रु सैनिकों में प्रहार करते हुए उसी तरह से प्रवेश कर रहे थे जिस तरह मोर केकड़ों के ध्वनि करते हुए जंगल में प्रवेश करते हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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