श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 30: भगवान् कपिल द्वारा विपरीत कर्मों का वर्णन  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  3.30.4 
 
 
जन्तुर्वै भव एतस्मिन्यां यां योनिमनुव्रजेत् ।
तस्यां तस्यां स लभते निर्वृतिं न विरज्यते ॥ ४ ॥
 
अनुवाद
 
  प्राणी जिस भी योनि में अवतरित होता है, उसे उसी योनि में एक विशेष संतोष मिलता है और वह उस अवस्था में रहने से कभी विमुख नहीं होता।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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