विश्वमात्मगतं व्यञ्जन्कूटस्थो जगदङ्कुर: ।
स्वतेजसापिबत्तीव्रमात्मप्रस्वापनं तम: ॥ २० ॥
अनुवाद
इस प्रकार, विविधता प्रकट करने के बाद, तेजस्वी महत् तत्त्व जिसमें समस्त ब्रह्माण्ड समाये हुए हैं, जो सृष्टि का मूल है और जो प्रलय के समय भी नष्ट नहीं होता, उस अंधकार को निगल जाता है जिसने प्रलय के समय तेज को ढँक लिया था।