उद्यतस्य हि कामस्य प्रतिवादो न शस्यते ।
अपि निर्मुक्तसङ्गस्य कामरक्तस्य किं पुन: ॥ १२ ॥
अनुवाद
स्वतः प्राप्त होने वाली भेंट का अनादर करना, मोह-माया से बिल्कुल मुक्त व्यक्ति के लिए भी उचित नहीं है, फिर विषय-वासनाओं में आसक्त व्यक्ति के लिए तो और भी नहीं।