यस्तां विविक्तचरितैरनुवर्तमानां
नात्याद्रियत्परमभागवतप्रसङ्ग: ।
स त्वं द्विजानुपथपुण्यरज: पुनीत:
श्रीवत्सलक्ष्म किमगा भगभाजनस्त्वम् ॥ २१ ॥
अनुवाद
हे प्रभु, आपके अनन्य भक्तों के कार्यों में आप बहुत रमते हैं, परंतु आप उन लक्ष्मी से कभी रमते नहीं जो आपकी दिव्य प्रेममयी सेवा में निरंतर तत्पर रहती हैं। तब आप किस प्रकार उस मार्ग की धूलि से शुद्ध हो सकते हैं, जिस पर ब्राह्मण चलते हैं, और आपके वक्षस्थल पर श्रीवत्स के चिह्न से आप किस तरह महिमामंडित व सौभाग्यशाली हो सकते हैं?