यद्यपि भगवान् (महाविष्णु) कारणार्णव में शयन करते रहते हैं, किन्तु व्यवस्था के संचालन हेतु वे उससे बाहर निकल कर अपने को हिरण्यगर्भ के रूप में विभाजित करते हुए प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हो जाते हैं और हजारों-हजारों पाँव, भुजा, मुँह, सिर वाला विराट रूप धारण कर लेते हैं।