श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 1: ईश अनुभूति का प्रथम सोपान  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  2.1.27 
 
 
द्वे जानुनी सुतलं विश्वमूर्ते-
रूरुद्वयं वितलं चातलं च ।
महीतलं तज्जघनं महीपते
नभस्तलं नाभिसरो गृणन्ति ॥ २७ ॥
 
अनुवाद
 
  विश्वरूप के घुटने सुतल लोक होते हैं, और उसकी दो जाँघें वितल और अतल लोक हैं। कूल्हे महीतल लोक हैं, और उसका नाभि का गड्डा बाहरी अंतरिक्ष है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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