उद्यच्चन्द्रनिशावक्त्र: प्रवालस्तबकालिभि: ।
गोपद्रुमलताजालैस्तत्रासीत् कुसुमाकर: ॥ २१ ॥
अनुवाद
तब मार्कण्डेय के आश्रम में वसन्त ऋतु आ गई। संध्याकालीन आकाश उदय होते चन्द्रमा के प्रकाश से चमक रहा था, मानो वह वसन्त का चेहरा हो। पेड़ों और लताओं के समूहों को नई कोंपलें और ताजे फूलों ने लगभग ढँक लिया था।