श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 7: पौराणिक साहित्य  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  12.7.11 
 
 
अव्याकृतगुणक्षोभान्महतत्रिस्त्रवृतोऽहम: ।
भूतसूक्ष्मेन्द्रियार्थानां सम्भव: सर्ग उच्यते ॥ ११ ॥
 
अनुवाद
 
  अव्यक्त प्रकृति के भीतर मूल गुणों के क्षोभ से महत् तत्त्व उत्पन्न होता है। महत् तत्त्व से मिथ्या अहंकार उत्पन्न होता है, जो तीन पक्षों में बँट जाता है। यह तीन प्रकार का मिथ्या अहंकार अनुभूति के सूक्ष्म रूपों, इन्द्रियों तथा स्थूल इन्द्रिय-विषयों के रूप में, प्रकट होता है। इन सबों की उत्पत्ति को सर्ग कहा जाता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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