श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 5: महाराज परीक्षित को शुकदेव गोस्वामी का अन्तिम उपदेश  »  श्लोक 11-12
 
 
श्लोक  12.5.11-12 
 
 
अहं ब्रह्म परं धाम ब्रह्माहं परमं पदम् ।
एवं समीक्ष्य चात्मानमात्मन्याधाय निष्कले ॥ ११ ॥
दशन्तं तक्षकं पादे लेलिहानं विषाननै: ।
न द्रक्ष्यसि शरीरं च विश्वं च पृथगात्मन: ॥ १२ ॥
 
अनुवाद
 
  तुम्हें मन में यह विचार लाना चाहिए कि, "मैं परब्रह्म, परम धाम से अभिन्न हूँ और परम गन्तव्य परब्रह्म मुझसे अभिन्न हैं।" इस प्रकार अपने को उस परमात्मा के चरणों में समर्पित करो, जो सभी भौतिक उपाधियों से मुक्त हैं। तब तुम तक्षक सर्प को, जब वह अपने विष से भरे हुए दाँतों से तुम तक पहुँच कर तुम्हारे पैर में काटेगा, तो देखोगे तक नहीं। न ही तुम अपने मरते हुए शरीर को या अपने चारों ओर के जगत को देखोगे, क्योंकि तुम अपने को उनसे पृथक् अनुभव कर चुके होगे।
 
 
 
  Connect Form
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
  © copyright 2024 vedamrit. All Rights Reserved.