ज्ञानविज्ञानसंयुक्त आत्मभूत: शरीरिणाम् ।
आत्मानुभवतुष्टात्मा नान्तरायैर्विहन्यसे ॥ १० ॥
अनुवाद
वेदों के परम ज्ञान से सराबोर होकर और ऐसे ज्ञान के चरम उद्देश्य को व्यवहार में उतारकर, तुम शुद्ध आत्मता को समझ सकोगे और तब तुम्हारा मन संतुष्ट हो जाएगा। उस समय तुम सभी जीवों के, देवताओं समेत, प्रिय बन जाओगे और कोई भी जीवन की अशांति तुम्हें परेशान नहीं कर सकेगी।